यम “आष्टांग योग” और व्यक्तित्व विकास।

आष्टांग योग और व्यक्तित्व विकास ,योग अभ्यास हमारे सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करता है।अष्टांग योग व्यक्तित्व के समूर्ण विकास और बदलाव के लिए किया जाने वाला एक अभ्यास है। जिसमे व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के अंदर जो कमी होती है, उसको दूर करने और जो अच्छी चीज होती है ,उसको और बेहतर बनाने का सतत प्रयास करता रहता है।

हमारा व्यक्तित्व हमारे जीवन के हर हिस्से से मिल कर बनता है। हमारे सुवह उठने से ले कर सोने तक ,और सोने से ले कर बापस उठने तक , २४ घंटे में हम जो भी करते है, वो सव हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करता चला जाता है।जब व्यक्तित्व के निर्माण की यह प्रकिरिया चल रही होती है ,अगर उस समय सही चीजों की जानकारी न हो या कोई मार्गदर्शक न हो तो तब हमारे व्यक्तित्व का निर्माण सही दिशा और तरीके से नहीं हो पाता है। जिससे हमारे व्यक्तित्व में काफी कमी रह जाती है।इस कारण से हमारे व्यक्तित्व में गलत चीजे विकसित होने लगती है और अच्छी और सही चीजें अविकसित रह जाती है। जिस कारण व्यक्ति सम्पूर्ण जीवन किसी न किसी कारण से दुखी और परेशान रहता है।योगअभ्यास कैसे शुरु करें ? How to start Yoga practice ?

व्यक्तित्व और उसके कारक।

हमारे व्यक्तित्व में कई सारे कारक होते है ,जो आपस में मिलकर हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करते है। जैसे शारीरिक ,मानसिक , भावनात्मक, व्यवहारिक, सामाजिक, शिक्षा ,वातावरण,बचपन ( लालन पालन) आदि। यह सब एक साथ मिलकर मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करते है। आधुनिक समय में व्यक्तित्व का अर्थ मात्र शारीरिक रूप रंग बनाबट आदि को ही मान लिया गया है।

आज का युवा व्यक्तित्व के विकास के लिए सिर्फ अपने पहनने और बालो के तरीके और बोलने के ढंग को ही व्यक्तित्व विकास समझ लेता है, और बस इन्ही को परिवर्तित करके यह मान लेता है, के उसने अपना व्यक्तित्व विकास कर लिया है। मगर हमारे युवा इस गलत फहमी में अपने व्यक्तित्व के विकास के अन्य महत्व पूर्ण आयामों को छोड़ देते है।

यम ” आष्टांग योग” अभ्यास और व्यक्तित्व विकास।

आष्टांग योग हमारे सम्पूर्ण विकास के लिए हमको प्रेरित करता है। योग की सबसे विख्यात विद्या मेंआष्टांग योग सवसे मुख्य है। यह एक प्रायोगिक और व्यबहारिक विद्या है। इस में कुल मिला कर आठ अंग होते है। यम ,नियम,आसान,प्राणायाम ,प्रत्याहार ,धारणा ,ध्यान ,समाधी यह आठ अंग पूर्ण रूप से मनुष्य के व्यक्तित्व विकास में सहयोग करते है।आईये जानते है। यम “आष्टांग योग” हमारे व्यक्तित्व विकास में कैसे सहयोग करता है ?

यम ( आष्टांग योग का पहला अंग )

आष्टांग योग का पहला अंग यम है। यह व्यक्ति को योग अभ्यास शुरू करने के लिए आंतरिक और व्यवहारिक रूप से तैयार होने में सहयोग करता है। योग की भाषा में व्यक्ति के भीतर जो गुण अबगुण होते है ,उनको वृति कहते है। यह व्यक्ति को सफल और सुखी होने से रोकते है। इसलिए योग में सवसे पहले इन वृतियों को नियंत्रित करने के लिए प्रयास किया जाता है। यम के अंतर्गत कुल पाँच अंग होते है। १. सत्य २.अहिंसा ३.अस्तेय ४.ब्रह्मचर्य ५.अपरिग्रह । आईये जानते है की यम हमारे व्यक्तित्व विकास में कैसे सहयोग करते है।

१.सत्य ( यम का पहला अंग )

आष्टांग योग में ‘यम , का पहला अंग “सत्य ” है। साधारण रूप से यह माना जाता है ,की जो जैसा है ,जैसा घटित हुआ है , उसको उसको वैसा बोलना और बताना सत्य है। मगर यम में सत्य को इससे भी आगे और बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यम के अनुसार मानव के जीवन में कई बार ऐसी अवस्था आती है जिसमे वह खुद को दुविधा और भृम से घिरा हुआ पाता है। इस दुबिधा को समझने और निकलने के लिए व्यक्ति को एक विवेकशील ,तर्कशील सजग और जाग्रत बुद्धि की आवश्य्कता होती है। जव व्यक्ति लगातार अपने आस पास की चीजों, व्यक्तियों और परिस्थियों का निरिक्षण करता है तब उसकी बुद्धि तीव्र,कुशल और तार्किक हो जाती है। इसलिए सत्य की खोज और अनुसरण करने से व्यक्ति का बौद्धिक विकास होता है।

२.अहिंसा( यम का दूसरा अंग )

आष्टांग योग में अहिंसा यम का दूसरा अंग है। साधारण रूप से किसी के साथ हिंसा (हानि) न करना अहिंसा कहलाती है।मगर आष्टांग योग में यम के दूसरे अंग अहिंसा को इससे कई अधिक व्यापक रूप से महत्त्व दिया गया है। इसके अनुसार किसी भी प्राणी (मानव, पशु ,पक्षी ,पेड़ आदि) को किसी भी प्रकार से कष्ट न देना और देने के विषय में कभी न सोचना अहिंसा है। किसी भी प्राणी को अपने मन से भाव से विचार से अपनी वाणी से अपने कार्यो आदि से किसी भी प्रकार का कष्ट न देना,किसी भी प्रकार की हानि या नुकसान पहुचाने के विषय में न सोचना ही अहिंसा है। जैसे जैसे व्यक्ति अहिंसा का अभ्यास करता है वैसे वैसे उसके भीतर शांति ,सहयोग ,समझ जैसे सामाजिक गुणों का उदय होने लगता है।

अहिंसा का अभ्यास करने से व्यक्ति के भीतर जो दोयम स्तर के गुण होते है ,जैसे मिथ्या वाचन ,काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह,स्वार्थ आदि धीरे धीरे कम होने लगते है। व्यक्तित्व के भीतर एक आदर्श और उन्नत व्यवहार विकसित होता है।

३.अस्तेय ( यम का तीसरा अंग )

आष्टांग योग के यम का तीसरा अंग अस्तेय है। अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। आष्टांग योग के अनुसार अस्तेय का अर्थ है ,किसी वस्तु ,व्यक्ति ,धन ,सम्पत्ति आदि को अनाधिकृत रूप से अपने अधीन करना या नियंत्रित करना। यहाँ तक की योग में अनाधिकृत रूप से ज्ञान अर्जित करना भी चोरी मानी जाती है।अगर ऐसा करने का भी विचार हमारे मन में आता है, तो हमारा अस्तेय का अभ्यास टूट जाता है। जिस कारण हमारे भीतर चोरी ,झूठ ,कुटिलता ,लालच ,जैसे दुर्गुण विकसित होने लगते है ,और हमारा व्यवहार सामाजिक रूप से स्वीकार नहीं होता है, साथ ही हमारे व्यक्तित्व मे बहुत हीन स्तर के अबगुण विकसित्त होने लगते है।

४.अपरिगृह ( यम का चौथा अंग )

आष्टांग योग के यम का चौथा अंग अपरिगृह है। अपरिगृह का अर्थ है जरूरत से अधिक एकत्र करने की वृति (आदत) का होना। धन ,सम्पत्ति ,भोग विलास ,भूमि, आदि का संचय करने से मनुष्य के भीतर लालच, स्वार्थ ,हिंसा ,तनाव,बेचैनी,जैसे मानसिक रोग और व्यवहारिक दुर्गुण उत्पन्न होने लगते है। मनुष्य के भीतर सयम,संतोष ,सदाचार और सहयोग जैसे गुणों का हास होने लगता है। जिससे मानव को अपने की जीवन सफलता, सुख ,शांति ,और परिपूर्णता की भावना कम हो जाती है। यम के चौथे अंग अपरिगृह का अभ्यास करना मनुष्य के जीवन में सयम और संतोष जैसे दैवीय गुणों को विकसित करता है।

५.ब्रह्मचर्य (यम का पांचवा अंग )

आष्टांग योग के यम का पांचवा अंग ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है शारीरिक ,मानसिक और भावनात्मक रूप से यौन (काम) का त्याग करना ही ब्रह्मचर्य माना गया है। इससे मनुष्य के भीतर संकल्प शक्ति का विकास होता है। मजबूत इच्छाशक्ति का विकास होता है। आत्मनियंत्रण का विकास होता है। शरीर और मन सबल होता है। वीर्य संचय होने से मनुष्य ओजस्वी और तेजस्वी होता है। बुद्धि तीव्र और कुशाग्र होती है। शारीरिक, मानसिक और आध्यत्मिक विकास होता है। इसके अतरिक्त ब्रह्मचर्य का एक अर्थ और भी होता है।

ब्रह्मचर्य का एक अर्थ ” ब्रह्म मय” आचरण से भी है इसका अर्थ है , की जैसे ब्रह्माण्ड (प्रकृति )चलती है ठीक उसके साथ खुद को जोड़ लेना अपनी दिन चर्या को प्रकृति के अनुरूप कर लेना। जैसे प्रकृति सवके साथ सामान और उदारता पूर्ण व्यबहार करती है ठीक वैसे ही व्यबहार को सबके साथ करना भी ब्रह्मचर्य कहलाता है। इससे मनुष्य के भीतर दया ,करुणा, प्रेम, सहयोग, आदर,सदाचार जैसे गुणों का विकास होता है।

निष्कर्ष

यम “आष्टांग योग” का पहला नियम है। जिसमे कुल पांच अंग (आदर्श)होते है। यम का पालन करने से मनुष्य के व्यक्तित्व में असाधारण विकास होता है। यम का पालन व्यक्तित्व विकास में बहुत अधिक योग दान देता है। यम व्यक्तित्व को विकसित कर के उसके भीतर सफल और सम्पूर्ण जीवन जीने की कला को विकसित करते है इसलिए व्यक्तित्व विकास में अस्टांग योग क यम का पालन करना बहुत लाफदायक होता है हम सभी को इन का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। जिससे हमारे व्यक्तित्व को खराव करने बाले अवगुण हमारे नियंत्रण में और अच्छे गुणों का विकास हो सके। और हम एक आदर्श और उच्च स्तर का व्यक्तित्व को प्राप्त कर सके।

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